धन्ना भगत की कथा
भक्त शिरोमणि धन्ना जाट
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भक्त धन्ना जाट |
राजस्थान के एक छोटे से गांव धुवां कला के जाट परिवार में धन्ना जाट नाम का एक किसान रहा करता था । धन्ना जाट एक सीधा-सादा किसान था, जो दिन भर खेतों में काम करता और शाम के समय घर आकर विधवा माता की सेवा किया करता था । धन्ना जाट के पास खेती लायक जमीन भी कम थी और जो उपज होती उसका अधिकतर भाग तो लगान चुकाने में ही चला जाता था । फिर भी किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी अपनी पटरी पर चल रही थी ।
एक बार गाँव में भागवत कथा का आयोजन किया गया । धन्ना भी समय निकालकर अपने माता को भागवत कथा सुनाने के लिए लाया करता था ।
भागवत कथा सुनकर धन्ना जाट को महसूस हुआ कि उसने तो अपने जीवन में कभी ठाकुरजी की पूजा अर्चना नहीं कि और पण्डित जी कह रहे हैं कि जो ठाकुरजी की सेवा नहीं करता वो इंसान नहीं जानवर है, और उसको स्वर्ग में जगह नहीं मिलती ।
पण्डित जी जब कथा समाप्त कर, गाँव से दान-दक्षिणा, माल-सामग्री लेकर घोड़े पर रवाना होने लगे, धन्ना जाट ने आगें बढ़कर घोड़े पर बैठे पण्डित जी के पैर पकड़े और बोला " पंडित जी ! आपने कहा कि ठाकुरजी की पूजा-पाठ, सेवा करने वाले का भवसागर से बेड़ा पार हो जाता है । जो प्राणी ठाकुरजी की सेवा नहीं करता, वह इन्सान नहीं हैवान है । पण्डित जी ! आप तो जा रहे हैं । कृपा कर मुझे ठाकुरजी की पूजा विधि समझाते जाइये ताकि आपके जाने के बाद मैं ठाकुरजी की सेवा कर सकूँ ।"
घोड़े पर सवार पंडितजी ने सोचा ये कौनसी बला आ गई और उन्होंने टालने के लिए कहा " जैसी मर्जी आये वैंसे करना !"
धन्ना ने भोलेपन से अपना अगला सवाल पूँछा " स्वामी ! मेरे पास तो ठाकुरजी भी नहीं हैं ।"
पंडितजी झल्लाये " ले आना कहीं से ।"
पंडितजी की झल्लाहट से अनभिज्ञ धन्ना जाट ने पुनः पूँछा " मुझे पता नहीं ठाकुरजी कहाँ होते हैं ? कैसे होते हैं ? मैने उन्हें कभी देखा नहीं । मुझे तो आपने कथा सुनायी, आप गुरु महाराज हैं । आप ही मुझे ठाकुरजी दे दीजिए ।"
पण्डित जी इस बला से जान छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन धन्ना जाट भोलेपन से अड़ा रहा । आखिर पिंड छुड़ाने के लिए पण्डित जी ने अपने झोले में हाथ डाला और भाँग घोटने का सिलबट्टा निकालकर धन्ना जाट के हाथ में धर दिया " लो ये ठाकुर जी है अब जा और इनकी सेवा कर ।"
" पंडितजी आखिरी सवाल है ।" धन्ना जाट ने सिलबट्टा हाथों में संभाल और पूँछा " पूजा कैसे करूँ ? पंडितजी यह तो बताओ ! ''
" नहाकर नहलाइयो और खिलाकर खइयो । पहले स्वयं स्नान करना फिर ठाकुरजी को स्नान कराना । पहले ठाकुरजी को खाना खिलाना फिर स्वयं खाना । बस इतनी ही पूजा है ।" पंडितजी ने घोड़ा आगें बढ़ाते हुए बताया
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पंडितजी |
धन्ना जाट ने पंडितजी के दिये सिलबट्टा को ले जाकर घर में प्रस्थापित किया । उसकी नजरों में वह सिलबट्टा नहीं, साक्षात ठाकुर जी थे ।
प्रातःकाल स्वयं स्नान किया और सिलबट्टे रूपी ठाकुरजी को स्नान कराया । अब पहले ठाकुरजी को खाना खिलाना था फिर खुद खाना था । विधवा माँ, बाप पहले ही मर चुका था । जमीन के नाम पर एक छोटा-सा खेत था । उसमें से भी जो आधा अधूरा मिले उसी से गृहस्थी चलानी थी ।
रोजाना एक रोटी उसके हिस्से में आती थी । वह भी बाजरे का टिक्कड़ और प्याज । छप्पन भोग तो थे नहीं, जो भी था, ठाकुरजी के आगे थाली में रखकर हाथ जोड़े और प्रार्थना करते हुए बोला " प्रभु ! भोजन खाओ । फिर मैं भी खाऊँ । मुझे तो बहुत भूख लगी है ।"
सिलबट्टा !
सिलबट्टा क्या मूर्ति हो तो भी कहाँ खाती ?
तो सिलबट्टा कहाँ से खाये ?
लेकिन धन्ना की बुद्धि में ऐसा नहीं था ।
धन्ना इंतजार करने लगा ।
सुबह से दोपहर होने को आ गई । धन्ना स्वंय भी भूख से बेहाल हो रहा था, आखिर व्याकुल होकर बोला " ठाकुरजी ! वे पण्डित जी तो चले गये । अब आपको मेरे साथ ही खाना होगा ।"
" पंडितजी के पास आपको खाने के लिए खीर मिलती थी तब तो खाते थे ? मुझ गरीब की रोटी आप नहीं खाते ?"
धन्ना सिलबट्टे की ओर ताकते हुए बोला " आप तो दयालु हो । मेरी हालत जानते है, फिर आप ऐसा क्यों करते हो ? खाओ न !"
" लगता है आप शरमाते है ? अच्छा मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ ।" धन्ना ने दोनों हाथों से आँखें बंद करके कहा " आँखें बंद कर ली है अब खाओ ।"
जब धन्ना ने आँख खोली, देखता है कि रोटी ज्यों की त्यों पड़ी है । धन्ना इंतजार करता रहा । रात हो गई और इंतजार करते हुए धन्ना भूखा ही सो गया ।
धन्ना अजब धर्मसंकट में फंसा था । पंडितजी ने तो कहा है कि खिलाकर खइयो । ठाकुरजी नहीं खाते तो वह खाना कैसे खायें ?
एक दिन बीता ।
दूसरे दिन वापस ताजी रोटी लाकर रखी और ठाकुरजी के खाने का इंतजार करने लगा ।
" चलो ! एक दिन तो पण्डित जी का वियोग हुआ । उनकी याद में नहीं खाया होगा । आज तो खाओ ।" धन्ना बुदबुदाया
लेकिन धन्ना को निराश होना पड़ा । रात हो गई और ठाकुरजी ने रोटी को हाथ भी नहीं लगाया । आखिर धन्ना भी भूखे पेट सो गया ।
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सिलबट्टा |
दो दिन बीत गए ।
धन्ना जाट ने भी मन ही मन जिद पकड़ ली कि ठाकुरजी रोटी नहीं खाते तो मैं भी नहीं खाऊँगा ।
कभी न कभी तो रोटी खायेंगे... !
मेरा भी कुछ दिनों का उपवास सही और क्या ?
एक एक कर चार दिन बीत गये ।
सिलबट्टे ने तो खाया नहीं, खाये भी कैसे ?
धन्ना जाट भी भूखा-प्यासा बैठा रहा ।
रोजाना स्नान करता और सिलबट्टे को धोकर उसके सामने ताजी रोटी लाकर रखता रहा ।
पाँचवें दिन भी हमेशा की तरह पूर्व में सूर्योदय हुआ और पश्चिम में जाकर अस्त हो गया ।
छठा दिन भी इसी तरह बीत गया ।
सातवें दिन धन्ना आ गया अपने जाटपने पर ।
छः दिन की भूख-प्यास ने उसे बेहाल कर रखा था ।
धन्ना अपनी एवं ठाकुरजी की भूख-प्यास बरदाश्त नहीं कर सका । वह सिलबट्टे के सामने फूट-फूटकर रोने लगा । पुकारने लगा, और प्यार भरे उलाहने देने लगा
" मैंने सुना था कि आप दयालु हो लेकिन हे नाथ ! आपमें इतनी कठोरता कैसे आयी ?"
" मेरे कारण आप छः दिन से भूखे प्यासे हो !"
" क्या गरीब हूँ इसलिए ?"
" रूखी रोटी है इसलिए ?"
" या मुझे मनाना नहीं आता इसलिए ?"
" अगर तुम्हें रोटी खाने नहीं आना है तो मुझे भी नहीं जीना ।"
धन्ना ने दराती उठाई और शुद्ध भाव से, सच्चे हृदय से ज्यों अपनी बलि देने को उद्यत हुआ, त्यों ही उस सिलबट्टे से तेजोमय प्रकाश-पुञ्ज प्रकट हुआ, धन्ना का हाथ पकड़ लिया और मनोहारी आवाज सुनाई दी
" धन्ना ! देख मैं रोटी खा रहा हूँ ।"
ठाकुरजी रोटी खा रहे हैं और धन्ना उन्हें निहारता रहा और जब ठाकुरजी ने आधी रोटी खा ली तो बोला " आधी मेरे लिए भी रखो । मैं भी भूखा हूँ ।"
" तू दूसरी खा लेना ।" ठाकुरजी ने मोहक मुस्कान के साथ कहा
" दो रोटी बनती है, एक रोटी मेरे हिस्से की दूसरी माँ के हिस्से की, दूसरी लूँगा तो माँ भूखी रहेगी ।" धन्ना ने अपनी परेशानी बताई
" ज्यादा रोटी क्यों नहीं बनाते ?"
" छोटा-सा खेत है । कैसे बनायें ?"
" किसी दूसरे का खेत जोतने को लेकर खेती क्यों नहीं करते ?"
" अकेला हूँ । एक खेत में ही थक जाता हूँ ।"
" नौकर क्यों नहीं रख लेते ?"
" पैसे नहीं हैं । बिना पैसे का नौकर मिले तो आधी रोटी खिलाऊँ और काम करवाऊँ ।"
" बिना पैसे का नौकर तो मैं ही हूँ ।" ठाकुरजी मुस्कुराये " मैंने कहीं नहीं कहा कि आप मुझे धन अर्पण करो, गहने अर्पण करो, फल-फूल अर्पण करो, छप्पन भोग अर्पण करो । मैं केवल प्यार का भूखा हूँ । प्यार अमीर-गरीब, छोटा-बडा, ब्राह्मण-शुद्र, ज्ञानी-अज्ञानी, हिन्दू-मुस्लिम, सब मुझे प्यार कर सकते हैं ।"
धन्ना जाट के यहाँ ठाकुरजी साथी के रूप में काम करने लगे । जहाँ उनके चरण पड़े वहाँ खेतों में सोना उगने लगा । कुछ ही समय में ठाकुरजी की कृपा से धन्ना ने खूब कमाया । दूसरा खेत लिया, तीसरा लिया, चौथा लिया । वह एक बड़ा जमींदार बन गया । घर के आँगन में दुधारू गाय-भैंसे बँधी थीं । सवारी के लिए श्रेष्ठ घोड़ा था ।
समय बिता और कुछ सालों बाद वह पण्डितजी वापस गाँव आया । धन्ना जाट पंडितजी के पास गया और श्रद्धा से चरणस्पर्श किया और बोला " पंडितजी ! आपने मुझे पहचाना ?"
" नहीं बेटा !" पंडितजी ने अनभिज्ञता जाहिर की
" पण्डितजी ! मैं वही हूँ जिसे आपने अपने ठाकुरजी दिए । अब पहचाना ?"
" हाँ ! पहचाना ।" पण्डितजी हैरानी से बोले " काफी बदल गये हो ?"
" सब ठाकुरजी की कृपा है ।"
" वो कैसे ?"
" जब आप ठाकुरजी को मुझे देकर गये थे, वे छः दिन तो भूखे रहे । तुम्हारी चिन्ता में उन्होंने रोटी तक नहीं खायी । बाद में जब मैंने उनके समक्ष 'नहीं' हो जाने की तैयारी की तब जाकर उन्होंने रोटी खायी । पहले मैं गरीब था लेकिन अब ठाकुर जी की बड़ी कृपा है ।" धन्ना बोला
पण्डित ने सिर खुजाया और सोचा कि अनपढ़ छोकरा है, बेवकूफी की बात करता है बोले " अच्छा....ठीक है ।"
" नहीं पंडितजी ! आज से आपको घी-दूध जो चाहिए वह मेरे घर से आया करेगा ।" धन्ना ने जिद पकड़ी
" चलो ठीक है....?" पंडितजी बोले
धन्ना जाट के जाने के बाद पण्डितजी ने गांव के लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि " हाँ महाराज ! जरूर कुछ चमत्कार हुआ है । बड़ा जमींदार बन गया है । कहता है कि भगवान उसका काम करते हैं । कुछ भी हो लेकिन वह कुछ ही समय में रंक से राजा हो गया है ।"
दूसरे दिन पण्डितजी ने धन्ना को बुलाया और कहा " जो तेरा काम कराने आते हैं उन ठाकुरजी को मेरे पास लाना । फिर तेरे घर चलेंगे ।"
दूसरे दिन धन्ना ने ठाकुरजी से बात की तो ठाकुरजी बोले " उसको अगर लाया तो मैं भाग जाऊँगा ।"
पण्डितजी की भक्ति में एकाग्रता नहीं थी, न ही तप था, प्रेम न था और न ही हृदय शुद्ध था ।
जरूरी नहीं की पण्डित होने के बाद हृदय शुद्ध हो जाय ।
राग और द्वेष हमारे चित्त को अशुद्ध करते हैं ।
निर्दोषता हमारे चित्त को शुद्ध करती है ।
शुद्ध चित्त चैतन्य का चमत्कार ले आता है ।
भक्त धन्ना जाट का निश्छल, निर्मोही, और स्वछ प्यार ही था जिसके कारण ठाकुरजी उसके समक्ष प्रस्तुत हुए ।
ठाकुरजी |
वैदिकवाङ्मय में सिलबट्टा(दृषद)
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